Saturday, July 27, 2024
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नव भारत में उच्च शिक्षा क्षेत्र की चुनौतियाँ: डॉ सुशांत चतुर्वेदी

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नव भारत में उच्च शिक्षा क्षेत्र की चुनौतियाँ: डॉ सुशांत चतुर्वेदी

अंबेडकरनगर : ऐसे समय में जब भारत देश विदेश में विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति की ओर अग्रसर है, अंतराष्ट्रीय परिदृश्य पर एक सबल राष्ट्र के रूप में ख्याति अर्जित कर रहा है ,ऐसे में उच्च शिक्षा क्षेत्र की चुनौतियों की और ध्यान देना और भी आवश्यक हो जाता है। महाविद्यालय , विश्व विद्यालय, राष्ट्रीय महत्व के तकनीकी शिक्षा प्रशिक्षण और अनुसंधान संस्थान में पठन-पठान का कार्य सम्पादित करने वालेअध्यापकों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है क्योंकि उनके जिम्मे ही दक्ष, संवेदनशील, चरित्रवान और देश भक्त युवा पीढ़ी के निर्माण का दायित्व है। शिक्षा के बाजारीकरण के दुष्परिणाम स्वरुप डिग्रीयां खरीदने के कई निजी प्लेटफार्म बन गए हैं। शिक्षा को व्यवसाय बनाकर मुँहमांगी फीस वसूलकर डिग्रीयां बाँटने का कार्य अधिकांश निजी संस्थान धड़ल्ले से कर रहे हैं जिन पर अंकुश लगाने में तंत्र अब तक विफल ही रहा है।

गुरु के प्रति शिष्य का सामान घट रहा है क्योंकि शिक्षक अब एक टीम (गुट) का हिस्सा बन गया है और वह अपने को, अपने समानांतर शिक्षक से उसी टीम या गुट का हिस्सा होने पर ही कनेक्ट कर पाता है या जोड़ पाता है। इसी गुटबाजी और पक्षपातपूर्ण विचारों के कारण वे बच्चों में अपने लिए आदर की भावना विकसित नहीं कर पाते। और इसी टीमबाजी के चलते विश्वविद्यालय के अधिकांश ज्ञानवान प्रोफेसर आगे चलकर हताशा और कुंठा के शिकार होते हैं। विश्वविद्यालय का आँगन मठाधीशी का अड्डा बना रहता है। गुरु-शिष्य के संबंध आज बाजार में बिकने वाली वस्तु हो गए हैं। इन सब के बीच योग्य शिक्षक के पलायन करने की आशंका तो बनी ही रहती है। परिसर में संवाद और विमर्श अब बीते ज़माने की बात हो चुके हैं ।

अक्सर संसाधनों की कमी है हवाला दिया जाता है और ध्यान समस्या के समाधान पर नहीं वरन समस्याओं के अम्बार पर केंद्रित किया जाता है। संसाधन नहीं है इसका रोना रोते रहने से काम तो चलने वाला नहीं है। कई बार संसाधनों की कृत्रिम आवश्यकता इसलिए भी बनायीं जाती है क्योंकि कुछ लोग ठेकेदार बनना ज्यादा पसंद करते हैं वो खरीद-फरोख्त में अपना कट (कमीशन ) लें सकें। सीमित संसाधनों के बेहतर प्रबंधन से भी अच्छे परिणाम पाए जा सकते हैं लेकिन रिक्त पदों की भर्तियां , स्वीकृत पदों के सापेक्ष योग्य शिक्षकों को अवसर की समानता देना यह सरकार की प्राथमिकता में होना ही चाहिए।

संतोषजनक बात यह है कि सरकार ने ‘राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान’ (RUSA) की योजना को 2026 तक जारी रखने की घोषणा कर दी है। रूसा का लक्ष्य सुविधा से वंचित क्षेत्रों, अपेक्षाकृत कम सुविधा वाले क्षेत्रों, ग्रामीण क्षेत्रों, कठिन भौगोलिक स्थिति वाले क्षेत्रों, वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्रों, उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में सतत् विकास कार्यों के लाभ को आगे बढ़ाना है। यह लक्ष्य उच्च शिक्षा क्षेत्र की वर्तमान चुनौतियों का बोध कराता है ।

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ी समस्या बेगारी की प्रथा को बढ़ावा देना भी है. अधिकांश निजी शिक्षा संस्थान जो गुणवत्ता परक शिक्षा देने का दावा तो बहुत करते हैं और उस दावे के प्रचार प्रसार के लिए खूब पैसे भी खर्च करते हैं लेकिन जब शिक्षक को उसका पारिश्रमिक देने की बात आती है तब उनके मापदंड बदल जाते हैं।आईआईटी, एनआईटी से पढ़े यू जी सी नेट, जे आर ऍफ़, गेट इत्यादि परीक्षाओं को पास करने के बाद भी एक शिक्षक से २ शिक्षक का काम लेना और उसको कम से कम वेतन देना और जो एआईसीटीई यूजीसी द्वारा तय मानक है, नियम है उनका पालन न करना यह आम बात है. अनाप शनाप तर्क देकर, बातें कहकर उनका दोहन किया जाता है. और यह काम देश और समाज के फायदे के लिए नहीं बल्कि अपने निजी लाभों के लिए कराया जाता है।

वस्तुतः यह शोषणकारी मानसिकता के पैंतरे होते हैं जबकि एक विकसित और शिक्षित समाज में अतिरिक्त कार्य को इंसेंटिवाइज किया जाता है. उस पारिश्रमिक का उचित मूल्य दिया जाता है, वह भी सम्मान के साथ. ऐसे संस्थान नॉट फॉर प्रॉफिट होने का दावा तो करते हैं, प्रमाण पत्र भी प्रस्तुत कर देते हैं लेकिन वास्तविकता में वह विशुद्ध रूप से शिक्षा का मुनाफे वाला व्यापार करते हैं और जब शिक्षा का व्यापार होता है तब विद्यार्थी एक ग्राहक बनकर रह जाता है और जब ऐसे संस्थान मोटी फीस वसूल करते हैं तो उस ग्राहक को उसकी संतुष्टि के लिए फ्री में डिग्रियां भी बांट दी जाती है, वह पढ़ाई करें चाहे न पढ़ाई करें उनको पास कर दिया जाता है। क्योंकि जो शिक्षा की दुकान है वह चलती रहनी चाहिए डिग्री तो पकवान है जो पकवान का दाम दे देगा वो वैसा पकवान पाएगा. यह खेल अधिकांश जगह संस्थानों में खेला जा रहा है परंतु वहीं कुछ ऐसी भी अच्छी निजी संस्थाएं हैं जो कि सरकारी संस्थानों को शिक्षा की गुणवत्ता, सुख सुविधाएं तथा छात्र के बाहर के जीवन में टिकने की संभावनाओं में किसी भी अच्छे उच्च सरकारी संस्थान से बराबर की टक्कर लेती है और कुछ तो उनसे भी अच्छा प्रदर्शन करती है.

आवश्यकता है कि शासन के स्तर पर नियामक को कड़ा बनाया जाए तथा सरकार ऐसे स्थानों को टेकओवर करें या उन्हें अपने नियंत्रण में रखें तो यह शिक्षा के लिए एक अच्छी बात होगी खासकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में क्योंकि हमारे पास ऐसे अनेक डिग्री स्तरीय शिक्षण संस्थानों के उदाहरण है जहां पर सरकार का नियंत्रण कुछ हद तक रहता है तो वह संस्थान एक ठीक गति से और नियम कानून के दायरे में रहकर कार्य करते हैं और वहां पर छात्र-छात्राओं के पढ़ने की जो लालसा, ललक रहती है वह भी बनी रहती है।

नव भारत के निर्माण के सन्दर्भ में विश्वविद्यालयों की महती भूमिका है । राष्ट का निर्माण कक्षाओं में हो रहा है ‘ के भाव को समझना अति आवश्यक है। एक स्वावलम्बी विद्यार्थी सतत सीखने वाला और अपनी क्षमताओं के अनुरूप अपना भविष्य साकार करने वाला होता है। आने वाला समय आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स विषय के जानकार लोगों का है , युवाओं को ऐसे विषयों में वैश्विक प्रतिस्पर्धा के साथ प्रवेश मिले और वो रोजगार परक बनें , इस दिशा में विशेष ध्यान देना होगा ।मूक – बधिर लोगों के प्रति संवेदनशीलता, महिलाओं , वंचितों, जन-जातीय लोगों की आकांछाओं का ध्यान, ‘कुटीर उद्योगों की पुनर्स्थापना , लोकल फॉर वोकल का सन्देश , स्टार्ट अप्स, इंटरप्रिनयोरशिप को बढ़ावा , रक्षा सम्बन्धी उपकरण , शोध द्वारा गुणवत्ता वाले उत्पाद , हस्तशिल्प , कृषि को प्रोत्साहन , स्वस्थ्य सम्बन्धी शिक्षा’ आदि अनेक विषय हैं जिनको नव भारत की चुनातियाँ मान कर शिक्षकों को सामना करना पड़ेगा।

उच्च शिक्षा नीति का एक अनूठा , मर्मस्पर्शी आयाम ‘ सर्वसमावेशी एवं समरसतापूर्ण समाज का ध्येय’ भी है और इसकी सुधि भी शिक्षा से जुड़े लोगों को लेनी पड़ेगी। शिक्षक राष्ट्र के निर्माण में सक्रिय योगदान देता है। वह ऐसे जन-मानस को पोषित करता है जो आज की चुनौतियों से लड़ने में सक्षम हो तथा जिससे वो अपने कल के सुनहरे भविष्य के रचियता स्वयं बन सकें। शिक्षक दिवस पर यह संकल्प हम सभी लें ताकि एक समर्थ, सशक्त, स्वस्थ और विचारवान नव भारत का उदय अपने चिर यौवन काल को प्राप्त कर सके।
डॉ सुशांत चतुर्वेदी, असिस्टेंट प्रोफेसर राजकीय इंजीनियरिंग कॉलेज, अंबेडकर नगर, उत्तर प्रदेश.

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