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’भैया मोरे आये अनवईया सावनवा मे ना जाइब ननदी’
वाराणसी : आख्यानः भारत की कथा परंपरा विषय पर द्विदिवसीय संगोष्ठी का दूसरा दिन बीएचयू के भारत अध्ययन केंद्र में सम्पन हुआ, जहां मुख्य अतिथि के रूप में पद्मविभूषण पंडित छन्नू लाल मिश्र और पद्मश्री गीता चंद्रन रही, साथ ही अन्य अतिथियों मे पद्मश्री डा. विद्या बिंदु सिंह, डा. धर्मेंद्र पारे, डा. मौली कौशल, डा. स्वर्ण अनिल, प्रो. शिवराम शर्मा, डा. समीर कुमार पाठक, प्रो. जम्पा सामतेन, प्रो. फूलचंद जैन, प्रो चंद्रकला त्रिपाठी, डा. सच्चिदानंद जोशी जैसी विभूतियां मौजूद रही एवं वक्तव्य दिया। प्रथम सत्र की शुरुआत पद्मविभूषण छन्नूलाल मिश्र व श्रीमती मालिनी अवस्थी ने महामना मालवीय जी को पुष्पार्पण कर किया। पं. छन्नूलाल मिश्र ने माहेश्वर सूत्रों से संगीत के उद्भव की व्याख्या करते हुए कजरी, निर्गुण व सोहर के गीतों के माध्यम से भारत के विभिन्न गीतों में कथा परंपरा की झलक दी।
उन्होंने कथा और संगीत में अंतर को स्पष्ट करते हुए संगीत में कथा के महत्व पर प्रकाश डाला। अपने संबोधन में उन्होंने छंदों, स्वरों को समझाते हुए कथा परंपरा की व्याख्या की। पण्डित छन्नूलाल मिश्र ने ‘भैया मोरे आये अनवईया सावनवा मे ना जाइब ननदी‘ का गान करके समा बांध दिया व अपने व्याख्यान का समापन सुप्रसिद्ध गीत ‘खेले मसाने में होरी‘ गाकर किया। व्याख्यान सत्र की द्वितीय वक्ता सुप्रसिद्ध नृत्यांगना पद्मश्री गीता चंद्रन ने सुमधुर गीत व भावपूर्ण नृत्य मुद्राओं के माध्यम से स्पष्ट किया की कैसे बिना कथा साहित्य के नाट्य या नृत्य अधूरा होता है, इस वक्तव्य के लिए उन्होंने भरतनाट्यम नृत्य शैली का उदाहरण लिया एवं भारत के सांस्कृतिक नृत्यों में संगीत और कथा के समायोजन के बारे में विभिन्न मुद्राओं तथा विविध दक्षिण भारतीय गीतों के माध्यम से प्रस्तुति की।
आगामी सत्र कथा परंपरा जनजातीय कथाओं में जीवन संदर्भ विषयक मे वक्ता के तौर पर डा. मौली कौशल, डा. धर्मेंद्र पारे और डा. स्वर्ण अनिल मौजूद रहे। प्रथम वक्ता के तौर पर संस्कृति मानचित्रण की मिशन निदेशक डा मौली कौशल ने जनजातीय कथाओं के माध्यम से कथा परंपरा के महत्व को परिभाषित किया, उन्होंने अरुणाचल और नागालैंड की दो प्रसिद्ध कथाओं के माध्यम से जनजातीय कथाओं का वर्णन किया। इसके बाद डा धर्मेंद्र पारे, निदेशक जनजातीय लोककला एवं बोली विकास अकादमी, मध्य प्रदेश ने अपने सम्बोधन में जनजातीय कथा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि लोककथा संबंधी आख्यान सदैव एक सीख देता है जबकि सांस्कृतिक रूप से जनजातीय आख्यान परिपक्वता की मांग करते हैं, वह नैतिकता की बात नही करते हैं।
जनजातीय आख्यानों में पुरुषार्थ व परोपकार केंद्र में होता है अपितु लोकआख्यान में क्या त्याज्य है या क्या ग्राह्य है इसकी सीख मिलती है। इसके बाद लेखिका एवं पूर्वोत्तर संस्कृति की अध्येता डा स्वर्ण अनिल ने बाणासुर व उनकी वंशावली की कथाओं के माध्यम से यह बताया की जनजातीय समाज की लोककथाओं ने भी भारत को एकसूत्र में बांधने का काम किया। उन्होंने अंत में कहा की पूरा भारत एक है परंतु सांस्कृतिक आक्रमण के कारण भारत के इस महत्वपूर्ण विरासत से भारत के अन्य प्रदेश अनभिज्ञ रह गए।
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