आरएसएस-भाजपा विवाद और मीडिया – डॉ. आमोदकांत
आरएसएस के कार्यों का श्रेय खुद अकेले ले लिया है तो क्या विपक्ष को भी आरएसएस की राह पकड़ कर व्यक्तिवाद का विरोध नहीं करना चाहिए? राजनीतिक शुचिता के लिए धर्म-निरपेक्षता का राग अलापने वालों को भी इन विकल्पों पर अमल करना चाहिए। परिवारवादी राजनीति को दुरुस्त करने में इनका योगदान भी शामिल हो सकता है। पूर्व के शासन काल में सड़कों पर पढ़ी जाने वाली नमाजों पर यदि पाबंदियां लगतीं तो कितना अच्छा होता। यह कार्य धर्म-निरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वाली कांग्रेस, सपा, बसपा अथवा अन्य गठबंधन वाली सरकारों ने यदि पहले ही कर दिया होता तो मंदिरों और मस्जिदों पर लगाए गये लाउडस्पीकर्स की ध्वनियों को नियंत्रित करने का कार्य योगी आदित्यनाथ सरकार को नहीं करना पड़ता। यह श्रेय उन्हें ही मिल जाता। इससे धर्म निरपेक्षता का पालन भी होता और समाज को सहूलियत भी मिल गयी होती।
कलमकारों को यह बात भी समझनी चाहिए कि लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान संघ की अगुवाई में होने वाली 45 हजार से अधिक बैठकों का हिस्सा भी ऐसे ही कार्यकर्ता थे। इनमें केवल किसी जाति विशेष से जुड़ा स्वयंसेवक अथवा कार्यकर्ता नहीं था, बल्कि इनमें सनातन के अलावा अन्य संप्रदायों, समुदायों, वर्ग और जातियों के स्वयंसेवक या कार्यकर्ता शामिल रहे। हाँ, भाजपा को जातिगत झुकाव को आधार बनाकर चुनावी समीक्षा नहीं करनी चाहिए। पूर्व केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान और पूर्व विधायक संगीत सोम जैसे नेताओं को जीत की तरह ही हार को पचाने की नसीहत देना आवश्यक है।
For You