लखनऊ । चुनावों में राजनीतिक दलों की ओर से मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त वस्तुएं या सेवाएं देने के वादे भले ही चुनावी निष्पक्षता की जड़ें हिला रहे हैं, लेकिन इन्हें रोकने में चुनाव आयोग के हाथ बंधे हैं। फिलहाल घोषणा पत्र से जुड़ी कुछ जानकारियों को मांगने के अलावा उसके पास इन पर अंकुश लगाने का कोई अधिकार नहीं है। यही वजह है कि चुनावों की घोषणा होते ही राजनीतिक दलों की ओर से मुफ्त में चीजें या सेवाएं देने के वादों की झड़ी लगा दी जाती है। पांच राज्यों में होने जा रहे चुनावों में भी कुछ ऐसी ही स्थिति है, जिनमें मुफ्त स्कूटर, मोबाइल फोन से लेकर नकदी तक देने के वादे किए गए हैं। जानकारों का कहना है कि सख्त कानून बनने तक इस तरह के वादों का खेल जारी रहेगा।मतदाताओं को लुभाने के इस खेल में कोई एक नहीं, बल्कि कमोबेश सभी राजनीतिक दल शामिल हैं। यह खेल भी कोई नया नहीं है। राजनीतिक दल लंबे समय से इसे आजमा रहे हैं। इसकी गूंज पहली बार तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में सुनवाई दी थी जब एक राजनीतिक दल ने मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त में कलर टीवी और साड़ी आदि देने का वादा किया था। बाद में यह पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां कोर्ट ने भी माना कि इस तरह के वादे चुनावों की निष्पक्षता को प्रभावित कर रहे हैं। लेकिन लोक प्रतिनिधित्व कानून के तहत घोषणा पत्र में किए गए वादों को भ्रष्ट आचरण नहीं माना जा सकता। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी शुचिता बरकरार रखने के लिए चुनाव आयोग से कहा था कि वह राजनीतिक दलों से यह पूछ सकता है कि घोषणा पत्र में किए गए वादों को वे कैसे पूरा करेंगे।