



देहरी
वह छोटी बच्ची जो खेलती है
छोटे छोटे घरौदे बनाकर
अपने नन्हें हाथों को चूड़ियों से सजाती है,
वह रोज सपने संजोती है बड़े होने के,
जिससे वह भी मम्मी की तरह डाँट सके,
कई स्वांग रचती है
कभी दुपट्टे को सारी की तरह लपेट कर
माथे पर बिंदी लगाकर,
पैरों में पहन लेती है पायल
अपनी नन्ही सी गुड़िया को सीने से लगाए
एक माँ के कर्मों को सहज ही निभाती है,
उसके लिए यह एक खेल है
वह गुड़िया को थपकिया देकर सुलाती है,
उसे नहलाती है, बड़े प्यार से खिलाती है,
उसे डाटती है,
प्यार से समझाती है,
गुड़िया को लड़की होने के सारे कर्म बतलाती है,
जो अपने लिए माँ से सुनती है,
वो सब गुड़िया को सुनाती है,
डॉट पड़ने पर उस पर गुस्सा उतारती है,
माँ के न रहने पर सब दुख दर्द उससे बांटती है,
उसे गुड़िया बनाया जाता है,
वो बेचारी गुड़िया को लड़की बनाती है,
लड़की होने के सारे गुण धर्म को निभाती है,
बड़े होने पर भी गुड़िया को कहा भूल पाती है?
अपनी सारी चंचलता को गुड़िया के भीतर
उसी देहरी पर छोड़ आती है।
लेखिका : गरिमा सिंह(वाणिज्य कर अधिकारी)
अयोध्या
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