वैदिक वाङ्मय में लेखन परम्परा, वैदिक दृष्टि में काल गणना
बीएचयू : पाणिनी की व्याकरण के बहुत पहले ही भारत में लेखन कला का पर्याप्त विकास हो चुका था तथा अनेकों प्रकार के लौकिक एवं वैदिक ग्रंथ लिखे जा चुके थे, ग्रंथों के लिये पाणिनी ने अपनी अष्टाध्यायी में खास तौर पर चार सूत्र निर्मित किये। श्रीलंका के अनुराधापुर से ५वीं – ६वीं शताब्दी ईसा पूर्व से ब्राह्मी लिपि के कार्बन डेटेड पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं, भारत से श्रीलंका तक स्क्रिप्ट के विकास एवं विस्तार में कुछ शताब्दियों का समय लगना स्वाभाविक है, अतः प्रथम दृष्टि में भारत के संदर्भ में ब्राह्मी लिपि का विकास एक हजार ईसा पूर्व की सीमारेखा को स्पर्श करता हुआ दिखता है।
वैदिक विज्ञान केंद्र, बीएचयू में आयोजित नेशनल सेमिनार में विशिष्ट वक्तव्य देते हुये वैदिक विषयों के विशेषज्ञ डॉ0 ललित मिश्र ने यह विचार व्यक्त किये। विषय पर आगे प्रमाण प्रस्तुत करते हुये ललित मिश्र ने कहा कि लेखन के साक्ष्य हमें ऋग्वेद एवं यजुर्वेद से ही मिलने शुरू हो जाते है, जिस पर पूर्ववर्ती भारतीय विद्वानों ने भी कार्य किया किंतु अंग्रेजों के शासन में उनके कार्यों को पर्याप्त महत्व नहीं मिल सका ।
विषय की स्थापना करते हुए वैदिक विज्ञान केन्द्र के समन्वयक प्रो. उपेन्द्र कुमार त्रिपाठी ने कहा कि प्राचीनतम वैदिक साहित्य मूलत: श्रुति मूलक है। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में भारत कला भवन के पूर्व निदेशक, डॉ. डी.पी. शर्मा ने अनेक पुरातात्विक प्रमाणों और पश्चिमी एशिया के साथ व्यापारिक संबंधों के प्रमाणों के आधार पर भारत में लेखन कला की प्रचीनता को प्रमाणित करते हुए कहा कि सैन्धव सभ्यता और वैदिक सभ्यता के बीच कोई भेद नहीं है विशिष्ट अतिथि, जंतु विज्ञान विभाग, विज्ञान संस्थान, का.हि.वि.वि. के प्रो. ज्ञानेन्द्र चौबे ने कहा कि सैन्धव सभ्यता के निवासियों का DNA ही आज की भारतीयों में मापा गया है।
उनमें किसी विदेशी जन के DNAसे कोई समानता नहीं मिलती है। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के आयोजन सचिव डॉ. प्रभाकर उपाध्याय ने सत्र संचालन किया तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ. नारायण प्रसाद भट्टराई ने किया। कार्यक्रम का आरम्भ वैदिक मंगलाचरण एवं सुश्री नेहा सिंह के कुलगीत की प्रस्तुति से हुआ।